वन अधिकार पट्टा और छतीसगढ़ की विशेष पिछड़ी जनजाति। ऐतिहासिक निर्णय।

वन अधिकार पत्र:

हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा वनों में निवास करने वाली विशेष पिछड़ी जातियों और जनजातियों को वन अधिकार पट्टे का आबंटन किया गया। आइये जानते हैं, वन अधिकार पट्टा क्या है और यह "वन अधिकार अधिनियम 2006" से कैसे संबंधित है?

वन अधिकार पट्टा और छतीसगढ़ की विशेष पिछड़ी जनजाति
वन अधिकार पट्टा और छतीसगढ़ की विशेष पिछड़ी जनजाति


आज कल चर्चा में क्यों है :

वनाधिकार मान्यता अधिनियम से जहां वनवासियों जो वनों में निवास कर रहीं है,चाहे वह जनजाति कोई भी हो, को भूमि स्वामी का हक मिल रहा है, वही जमीन का पट्टा मिलने से शासन की योजनाओं का लाभ भी मिल रहा है। प्रदेश के सरगुजा जिले में विशेष पिछड़ी जनजाति पण्डो जिन्हें राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र भी कहा जाता है, उन्हें भी वनाधिकार पत्र मिला है। वे शासन की योजनाओं का लाभ लेकर समाज की मुख्य धारा से जुड़कर जीवन में आगे बढ़ रहे हैं। 

सरगुजा संभाग में वनाधिकार मान्यता अधिनियम के तहत अब तक एक लाख 11 हजार 165 अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों को वनाधिकार पत्र वितरित किये गए है। 

उल्लेखनीय है, कि आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों को जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून को पूरे देश में लागू किया गया। प्रदेश में 13 दिसम्बर 2005 से पहले वन क्षेत्र में काबिज वनवासियों को वनाधिकार अधिनियम के अंतर्गत लाभ दिया जा रहा है। इसमें वनक्षेत्र में निवास करने वाले ग्रामीणों को शासन द्वारा व्यक्तिगत और सामुदायिक पत्र का वितरण किया जा रहा है।

क्या है वन अधिकार अधिनियम 2006:

संसद ने 18 दिसम्बर, 2006 को सर्वसम्मति से अनुसूचित जाति एवं अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पारित किया था। इस  अधिनियम की धारा-6 के अंतर्गत राज्यों में अपीलीय समितियों के साथ-साथ ग्राम सभा के स्तर पर वन निवासियों के दावों की स्वीकृति या अस्वीकृति के लिये बहुस्तरीय एवं श्रेणीबद्ध प्रक्रिया को शामिल किया गया है। इस अधिनियम का उद्देश्य ऐसे वनवासियों के वन भूमि पर अधिकार और कब्ज़े को सुनिश्चित करना है, जो कई पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं, लेकिन इनके अधिकार दर्ज नहीं किये जा सके हैं।

प्रमुख विशेषताएँ:

इस अधिनियम में न केवल आजीविका के लिये स्‍व–कृषि या निवास के तहत  वन भूमि में रहने के अधिकार का प्रावधान है, बल्कि यह वन संसाधनों पर उनका नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिये कई अन्‍य अधिकार भी देता है।

१) इनमें स्‍वामित्‍व का अधिकार, संग्रह तक पहुँच, लघु वन उपज का उपयोग व निपटान, निस्‍तार जैसे सामुदायिक अधिकार;
२) आदिम जनजातीय समूहों तथा कृषि-पूर्व समुदायों के लिये निवास का अधिकार,

३) ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन जिसकी उपयोग के लिये पारंपरिक रूप से सुरक्षा या संरक्षण करते रहे हैं, विरोध, पुनर्निर्माण, संरक्षण या प्रबंधन का अधिकार शामिल है।

  • इस अधिनियम में ग्राम सभाओं की अनुशंसा के साथ विद्यालयों, चिकित्‍सालयों, उचित दर की दुकानों, बिजली तथा दूरसंचार लाइनों, पानी की टंकियों आदि जैसे सरकार द्वारा प्रबंधित जन उपयोग सुविधाओं के लिये वन जीवन के उपयोग का भी प्रावधान है।
  • इसके अतिरिक्‍त जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा आदिवासी लोगों के लाभ के लिये कई योजनाएँ भी क्रियान्वित की गई हैं। इनमें वन क्षेत्रों के लिये न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य के ज़रिये लघु वन उपज के विपणन हेतु तंत्र तथा वैल्‍यू चेन के विकास जैसी योजनाएँ भी शामिल हैं।
  • वन ग्रामों के विकास के लिये संपर्क, सड़कों, स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल, प्राथमिक शिक्षा, लघु सिंचाई, वर्षा जल खेती, पीने के पानी, स्‍वच्‍छता, समुदाय हॉल जैसी बुनियादी सेवाओं तथा सुविधाओं से संबंधित ढाँचागत कार्यों के लिये जनजातीय उप-योजना के लिये विशेष केंद्रीय सहायता से फंड जारी किया जाता है।
  • इस अधिनियम की धारा 3 (1)(h) के तहत वन्य गाँव, पुराने आबादी वाले क्षेत्रों, बिना सर्वेक्षण वाले गाँव तथा वन क्षेत्र के अन्य गाँवों (चाहे वह राजस्व गाँव के रूप में अधिसूचित हों या नहीं) के स्थापन एवं परिवर्तन का अधिकार यहाँ रहने वाले सभी अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पारंपरिक वन निवासियों को प्राप्त है।
  • अधिनियम के प्रावधानों और बनाए गए नियमों के मुताबिक अन्य कानूनों की तरह ही वन्य गाँवों को राजस्व गाँवों में परिवर्तित करने अधिकार ग्राम सभा, उप मंडल स्तरीय समिति और ज़िला स्तरीय समिति के क्षेत्राधिकार में आते हैं।

छतीसगढ़ में पिछड़ी विशेष जनजातियों और वन में निवास करने वाले आदिवासियों को वन पट्टा मिलने में विवाद:- सुप्रीम कोर्ट का फैसला 

तीन जजों की बेंच ने उन राज्यों के मुख्य सचिवों को इन वनवासियों को 24 जुलाई, 2019 तक या उससे पहले ही वनों से बेदखल करने का आदेश दिया है, जिनके दावों को खारिज किया गया है। जस्टिस अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने 16 राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी कर कहा कि वे ऐसी लाखों हेक्टेयर ज़मीन को कब्ज़े से मुक्त कराकर अदालत को इसकी जानकारी दें। जंगलों और अभयारण्यों में अतिक्रमण की समस्या बेहद जटिल है और कई मामलों में कब्ज़ाधारक अपने मालिकाना हक को साबित करने में असफल रहे हैं। कोर्ट ने कहा कि अवैध घुसपैठियों को अब तक निकाला क्यों नहीं गया...ऐसे लोगों को तत्काल वहाँ से निकाला जाए।

कोर्ट ने आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल को अवैध रूप से जंगलों में रहने वालों को बेदखल करने का आदेश दिया था ।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का असर:

कानून बन जाने से वन्य जीवों के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो जाएगा। लेकिन दूसरी ओर यह देखा गया है कि जबसे जंगल के आश्रितों को जंगल से खदेड़ा गया है, तबसे कई दुर्लभ जानवरों के अस्तित्व पर संकट गहराया है। इसके बावजूद जंगल के आश्रितों को ही दोषी माने जाने की परम्परा चलती रही है। आदिवासियों के हितों के लिए संघर्षरत संगठनों का कहना है कि जहां-जहां आदिवासी जंगलों में बसे हुए हैं, वहां-वहां जंगल बचे हुए हैं। उनका कहना है कि वन माफिया उन्हीं इलाकों में सक्रिय हैं, जहां से लोग विस्थापित हो गए हैं। जब अंतर साफ नजर आने लगा तो सरकार के लिए यह कहना कठिन हो गया कि वन आश्रितों के कारण वनों को नुकसान हो रहा है। वन आश्रितों की संस्कृति में पेड़-पौधे एवं वन्य जीव रचे-बसे हुए हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति प्रेमी और जंगल के वास्तविक अधिकारी माना जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश से परे छत्तीसगढ़ में वन-धन पायलेट परियोजना शुरुवात :-

अनुसूचित जनजातियों के समुदाय देश के लगभग 15 प्रतिशत क्षेत्र में रहते हैं। ये विभिन्न पारिस्थितिकीय और भू-जलवायु वाले पर्यावरण वाले क्षेत्र हैं, जिनमें मैदानी इलाकों के अलावा दुर्गम वन क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र भी शामिल हैं। जनजातीय कार्य मंत्रालय इन समुदायों के लिये जन धन, वन धन तथा गोवर्धन योजनाओं को मिलाकर देश के जनजातीय जिलों में वन धन विकास केंद्र बनाने की योजना चला रहा है।
  • 14 अप्रैल, 2018 को छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में वन धन पायलट परियोजना की शुरुआत हुई थी।
  • यह योजना केंद्रीय स्‍तर पर महत्त्वपूर्ण विभाग के तौर पर जनजातीय कार्य मंत्रालय और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर महत्त्वपूर्ण एजेंसी के रूप में ट्राइफेड के माध्‍यम से लागू की जा रही है।
  • इस पहल का उद्देश्‍य जनजातीय समुदाय के वनोत्‍पाद एकत्रित करने वालों और कारीगरों के आजीविका आधारित विकास को बढ़ावा देना है।
  • गौरतलब है कि गैर-लकड़ी वनोत्पाद देश के लगभग 5 करोड़ जनजातीय लोगों की आय और आजीविका का प्राथमिक स्रोत है।

छतीसगढ़ में जनजातियों द्वारा प्रमुख लघुवनोपज का संग्रहण :

अधिकतर जनजातीय ज़िले वन क्षेत्रों में हैं और जनजातीय समुदाय पारंपरिक प्रक्रियाओं से गैर-लकड़ी वनोत्पाद एकत्रित करने और उनके मूल्यवर्द्धन में पारंगत होते हैं।
इस पहल के अंतर्गत कवर किये जाने वाले प्रमुख गौण वनोत्‍पादों की सूची में इमली, महुआ के फूल, महुआ के बीज, पहाड़ी झाड़ू, चिरौंजी, शहद, साल के बीज, साल की पत्तियाँ, बाँस, आम (अमचूर), आँवला (चूरन/कैंडी), तेज़पात, इलायची, काली मिर्च, हल्दी, सौंठ, दालचीनी, आदि शामिल हैं।

पायलेट परियोजना के सफलता पूर्वक क्रियान्वयन बाद सरकार द्वारा निर्धारित बुनियादी अधिकार:

तीन बुनियादी अधिकारों को मान्यता दी गई है :
  1. विभिन्न प्रकार की जमीन, जिसकी निर्धारण की आधार तिथि 13 दिसम्बर, 2005 है (अर्थात उस तिथि से पूर्व से उस पर उसका कब्जा है और वह उसे जोत रहा है) और यदि कोई दूसरा दस्तावेज उपलब्ध न हो तो प्रति परिवार 4 हेक्टेयर की भू-हदबन्दी लागू होगी।
  2. पारम्परिक रूप से लघु वनोत्पाद, जल निकायों, चरागाहों आदि का उपयोग कर रहा हो।
  3. वनों एवं वन्य-जीवों की रक्षा एवं संरक्षण। यह वह अन्तिम अधिकार है जो इस कानून का अति क्रान्तिकारी पक्ष है। यह उन हजारों ग्रामीण समुदायों के लिए महत्त्वपूर्ण है जो वन माफियाओं, उद्योगों तथा जमीन पर कब्जा करने वालों के खतरों से अपने वनों तथा वन्य जीवों की रक्षा में लगे हुए हैं। इनमें से अधिकतर वन विभाग की साँठगाँठ से इस काम को अंजाम देते हैं। पहली बार यह वास्तविक रूप से भावी जनतान्त्रिक वन प्रबन्धन का द्वार खोलता है और इसकी सम्भावना पैदा करता है।

वन अधिकार पट्टा से मिलने वाले लाभ:

यह योजना उनके परिवार के आर्थिक समृद्धि का आधार भी बन गयी है। उनके पास आय के लिए कई तरह के स्त्रोत उपलब्ध हो गए है। अब परिवार के भरण पोषण के लिए उचित मात्रा में अनाज उपलब्ध होने के साथ फसलों की ब्रिकी से भी आर्थिक लाभ हो रहा है। अब वे अपने परिवार का उचित रूप से देखभाल कर पा रहे हैं और साथ ही अपने बच्चों को अच्छे विद्यालय में शिक्षा उपलब्ध करा रहे है।

निष्कर्ष:

जहां एक और मानव और वन्यजीव संघर्ष नजर आता है वहीं दूसरी ओर कई सालों से दुर्गम स्थानों पर निवासरत विशेष पिछड़ी जनजाति तथा उनकी संस्कृति नज़र आती है। इनकी सभ्यता और संस्कृति ही इन्ही वनों पर आधारित है ,इन्हें अलग करना इनकी संस्कृति पर प्रहार स्वरूप होगा। जहां एक ओर वन माफियाओं द्वारा वनों अधिकाधिक दोहन किया जा रहा है,वही दूसरी ओर हमें कोई विद्रोह(एक साल-एक सर)और चिपको आंदोलन जैसी प्रायोजित घटनायें भी देखने मिलती है।

जहाँ एक ओर सरगुजा संभाग के कुछ जिलों में पिछले एक माह में दर्जन भर हाथियों को क्रूरता पूर्वक मार डाला गया,कहीं खेतों के बाड़ में करेंट लगाकर तो कही अति विषैले उर्वरकों को खाने की चीज़ों में मिला कर दे दिये जाने जैसी घटनाएं,वहीं दूसरी ओर उन्ही वनवासियों द्वारा कुंए में गिरे हाथी के बच्चे को बाहर निकालने जैसी घटनाएं भी सामने आती हैँ।

अतः यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि, पट्टे का दिया जाना एक उचित निर्णय होगा, सरकार को पट्टे के साथ-साथ वन्यजीवों तथा पेड़-पौधों को वन माफियाओं से बचाने का जिम्मा भी सौंपने की जरूरत है तथा सरकार को इनको पट्टा देने से पूर्व यह समझाने जरूरत है, कि "वन ही हमारे ऑक्सीज़न बैंक है" इसके बिना जीवन की कल्पना ही नही की जा सकती। 

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